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स घा॑ नः सू॒नुः शव॑सा पृ॒थुप्र॑गामा सु॒शेवः॑। मी॒ढ्वाँ अ॒स्माकं॑ बभूयात्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa ghā naḥ sūnuḥ śavasā pṛthupragāmā suśevaḥ | mīḍhvām̐ asmākam babhūyāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। घ॒। नः॒। सू॒नुः। शव॑सा। पृ॒थुऽप्र॑गामा। सु॒ऽशेवः॑। मी॒ढ्वान्। अ॒स्माक॑म्। ब॒भू॒या॒त्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:27» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:22» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में सन्तान के गुण प्रकाशित किये हैं॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (सूनुः) धर्मात्मा पुत्र (शवसा) अपने पुरुषार्थ बल आदि गुण से (पृथुप्रगामा) अत्यन्त विस्तारयुक्त विमानादि रथों से उत्तम गमन करने तथा (मीढ्वान्) योग्य सुख का सींचनेवाला है, वह (नः) हम लोगों की (घ) ही उत्तम क्रिया से धर्म और शिल्प कार्यों को करनेवाला (बभूयात्) हो। इस मन्त्र में सायणाचार्य्य ने लिट् के स्थान में लिङ् लकार कहकर तिङ् को तिङ् होना यह अशुद्धता से व्याख्यान किया है, क्योंकि (तिङां तिङो भवन्तीति वक्तव्यम्) इस वार्तिक से तिङों का व्यत्यय होता है, कुछ लकारों का व्यत्यय नहीं होता है॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्या सुशिक्षा से धार्म्मिक सुशील पुत्र अनेक अपने कहे के अनुकूल कामों को करके पिता माता आदि के सुखों को नित्य सिद्ध करता है, वैसे ही बहुत गुणवाला यह भौतिक अग्नि विद्या के अनुकूल रीति से सम्प्रयुक्त किया हुआ हम लोगों के सब सुखों को सिद्ध करता है॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाऽपत्यगुणा उपदिश्यन्ते॥

अन्वय:

यः सूनुः सुपुत्रः शवसा पृथुप्रगामा मीढ्वानस्ति, स नोऽस्माकं पुरुषार्थिना घ एव कार्य्यकारी बभूयात् भवेत्॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वक्ष्यमाणः (घ) एव। अत्र ऋचि तुनुघमक्षु० (अष्टा०६.३.१३३) अनेन दीर्घः। (नः) अस्माकम् (सूनुः) कार्यकारी सन्तानः। सूनुरित्यपत्यनामसु पठितम्। (निघं०२.२) (शवसा) बलादिगुणेन सह (पृथुप्रगामा) पृथुभिः विस्तृतैर्यानैः प्रकृष्टो गामो गमनं यस्य सः। अत्र सुपां सुलुग्० इति विभक्तेराकारादेशः। (सुशेवः) शोभनं शेवं सुखं यस्मात् सः। शेवमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) अत्र। इण्शीभ्यां वन्। (उणा०१.१५०) अनेन शीङ्धातोर्वन् प्रत्ययः। (मीढ्वान्) वृष्टिद्वारा सेचकः। अत्र दाश्वान् साह्वान्० (अष्टा०६.१.१२) इति निपाताद् द्वित्वं न। (अस्माकम्) पुरुषार्थिनां सुक्रियया (बभूयात्) भवेत्। अत्र वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नियमात् लिटः स्थाने लिङ् तद्वत्कार्यं च। अत्र सायणाचार्य्येण लिटः स्थाने लिङित्युच्चार्य्य तिङां तिङो भवन्तीत्यशुद्धं व्याख्यातम्॥२॥
भावार्थभाषाः - यथा विद्यासुशिक्षया धार्मिका विद्वांसः पुत्रा अनेकान्यनुकूलानि कर्माणि संसेव्य पित्रादीनां सुखानि नित्यं सम्पादयन्ति, तथैव बहुगुणयुक्तोऽयमग्निर्विद्यानुकूलरीत्या सम्प्रयोजितः सन्नस्माकं सर्वाणि सुखानि साधयति॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्या व सुशिक्षणाने धार्मिक, सुशील पुत्र आपण सांगितलेल्या अनेक कामांना करून पिता व माता यांना सदैव सुख देतो, तसेच अत्यंत गुणवान असणारा भौतिक अग्नी विद्येच्या अनुकूल संयुक्त केलेला असून आम्हाला सर्व सुख देतो. ॥ २ ॥